आयुर्वेद क्या है और पूरा सार!

                                     

                      आयुर्वेद (आयुः + वेद = आयुर्वेद[1]विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। यह विज्ञानकला और दर्शन का मिश्रण है। ‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है, ‘जीवन से सम्बन्धित ज्ञान’। आयुर्वेद, भारतीय आयुर्विज्ञान है। आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।

हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ -(चरक संहिता १/४०)

(अर्थात जिस ग्रंथ में - हित आयु (जीवन के अनुकूल), अहित आयु (जीवन के प्रतिकूल), सुख आयु (स्वस्थ जीवन), एवं दुःख आयु (रोग अवस्था) - इनका वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं।)

आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य। इसी प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वैदिक चिकित्सा के आठ अंग माने गए हैं (अष्टांग वैद्यक), ये आठ अंग ये हैं- कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण। 

इतिहाससंपादित करें

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ईसा के ३,००० से ५०,००० वर्ष पूर्व तक का माना है। ऋग्वेद-संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरकसुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद की रचनाकाल ईसा पूर्व ३,००० से ५०,००० वर्ष पहले यानि सृष्टि की उत्पत्ति के आस-पास या साथ का ही है।

आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथो के अनुसार यह देवताओं कि चिकित्सा पद्धति है जिसके ज्ञान को मानव कल्याण के लिए निवेदन किए जाने पर देवताओं के वैद्य ने धरती के महान आचार्यों को दिया। इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ना जैसी कई चमत्कारिक चिकित्साएं की थी। अश्विनीकुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर अलग अलग संप्रदायों के अनुसार उनके प्राचीन और पहले आचार्यों आत्रेय / सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक। ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम 'तन्त्र' रखा । ये आठ भाग निम्नलिखित हैं :[2]

१) शल्य तन्त्र,
२) शालाक्य तन्त्र,
३) काय चिकित्सा तन्त्र,
४) गृह और भूत विद्या तन्त्र,
५) कौमारभृत्य तन्त्र,
६) अगद तन्त्र,
७) जरावस्था एवम् रसायन तन्त्र और
८) वाजीकरण तन्त्र ।

इस अष्टाङ्ग आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्त्व, शरीर विज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व और धात्री विद्या भी हैं। इसके अतिरिक्त उसमें सदृश चिकित्सा (होम्योपैथी), विरोधी चिकित्सा (एलोपैथी), जलचिकित्सा (हाइड्रोपैथी), प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी), योगसर्जरी, नाड़ी विज्ञान (पल्स डायग्नोसिस) आदि आजकल के अभिनव चिकित्सा प्रणालियों के मूल सिद्धान्तों के विधान भी 2500 वर्ष पूर्व ही सूत्र रूप में लिखे पाये जाते हैं ।

आयुर्वेद का अवतरण

चरक मतानुसार (आत्रेय सम्प्रदाय)

आयुर्वेद के ऐतिहासिक ज्ञान के सन्दर्भ में सर्वप्रथम ज्ञान का उल्लेख, चरक मत के अनुसार मृत्युलोक में आयुर्वेद के अवतरण के साथ- अग्निवेश का नामोल्लेख है। सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया[3] च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास में ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।

सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)

सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वंतरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार धन्वंतरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे अश्विनीकुमार द्वय तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया।

आयुर्वेद का काल-विभाजन

आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -

संहिताकाल

संहिताकाल का समय 5वीं शती ई.पू. से 6वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि - चरकसुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी संहिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से कायचिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्रमुख विशेषता है।

व्याख्याकाल

इसका समय 7वीं शती से लेकर 15वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हण की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।

शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।

विवृतिकाल

इस काल का समय 14वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदानज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है।

स्पष्ट है कि आयुर्वेद की प्राचीनता वेदों के काल से ही सिद्ध है। आधुनिक चिकित्सापद्धति में सामाजिक चिकित्सा पद्धति को एक नई विचारधरा माना जाता है, परन्तु यह कोई नई विचारधारा नहीं अपितु यह उसकी पुनरावृत्ति मात्र है, जिसका उल्लेख 2500 वर्षों से भी पहले आयुर्वेद में किया गया है जिसके सभी सिद्धांतो का प्रत्येक शब्द आज इतने सालों बाद भी अपने सूक्ष्म और स्थूल हर रूप में सही सिद्ध होता है। जैसे कुछ समय पूर्व आधुनिक वैज्ञानिकों ने कृत्रिम नाक बनाए जाने का काम किया है और उन वैज्ञानिकों के अनुसार उनका यह काम सुश्रुत संहिता के मूल सिद्धांतों को पढ़कर और उसपर आगे विस्तृत कार्य करने के बाद ही संभव हो पाया है

आयुर्वैदिक चिकित्सा के लाभ

  • आयुर्वेदीय चिकित्सा विधि सर्वांगीण है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के उपरान्त व्यक्ति की शारीरिक तथा मानसिक दोनों में सुधार होता है।
  • आयुर्वेदिक औषधियों के अधिकांश घटक जड़ी-बुटियों, पौधों, फूलों एवं फलों आदि से प्राप्त की जातीं हैं। अतः यह चिकित्सा प्रकृति के निकट है।
  • व्यावहारिक रूप से आयुर्वेदिक औषधियों के कोई दुष्प्रभाव (साइड-इफेक्ट) देखने को नहीं मिलते।
  • अनेकों जीर्ण रोगों के लिए आयुर्वेद विशेष रूप से प्रभावी है।
  • आयुर्वेद न केवल रोगों की चिकित्सा करता है बल्कि रोगों को रोकता भी है।
  • आयुर्वेद भोजन तथा जीवनशैली में सरल परिवर्तनों के द्वारा रोगों को दूर रखने के उपाय सुझाता है।
  • आयुर्वेदिक औषधियाँ स्वस्थ लोगों के लिए भी उपयोगी हैं।
  • आयुर्वेदिक चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती है क्योंकि आयुर्वेद चिकित्सा में सरलता से उपलब्ध जड़ी-बूटियाँ एवं मसाले काम में लाये जाते हैं।

आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ

इन्हें भी देखें- रसविद्या

  • वृहत्त्रयी :
चरकसंहिता --- चरक
सुश्रुतसंहिता --- सुश्रुत
अष्टांगहृदय --- वाग्भट
  • लघुत्रयी :
भावप्रकाश --- भाव मिश्र
माधव निदान --- माधवकर
शार्ङ्गधरसंहिता -- शार्ङ्गधर (१३०० ई)
  • अन्य:

आयुर्वेद शब्दावली

  • आयुर्वेद -- आयुर्वेद शब्द दो शब्दों 'आयु' और 'वेद' से मिलकर बना है। आयु का अर्थ होता है 'जीवन' और वेद मतलब 'विज्ञान' होता है। अर्थात आयुर्वेद का अर्थ जीवन-विज्ञान या आयुर्विज्ञान होता है।
  • अनुपान -- जिस पदार्थ के साथ दवा सेवन की जाए। जैसे जल , शहद
  • अपथ्य -- त्यागने योग्य, सेवन न करने योग्य
  • अनुभूत -- आज़माया हुआ
  • असाध्य -- लाइलाज
  • अजीर्ण -- बदहजमी
  • अभिष्यन्दि -- भारीपन और शिथिलता पैदा करने वाला, जैसे दही
  • अनुलोमन -- नीचे की ओर गति करना
  • अतिसार -- बार बार पतले दस्त होना
  • अर्श -- बवासीर
  • अर्दित -- मुंह का लकवा
  • आम -- खाये हुए आहार को 'जब तक वह पूरी तरह पच ना जाए', आम कहते हैं। अन्न-नलिका से होता हुआ अन्न जहाँ पहुँचता है उस अंग को 'आमाशय' यानि 'आम का स्थान' कहते हैं।
  • आहार -- खान-पान
  • ओज -- जीवनशक्ति
  • उष्ण -- गरम
  • उष्ण्वीर्य -- गर्म प्रकृति का
  • कष्टसाध्य -- कठिनाई से ठीक होने वाला
  • कल्क -- पिसी हुई लुग्दी
  • क्वाथ -- काढ़ा
  • कर्मज -- पिछले कर्मों के कारण होने वाला
  • कुपित होना -- वृद्धि होना, उग्र होना
  • काढ़ा करना -- द्रव्य को पानी में इतना उबाला जाए की पानी जल कर चौथाई अंश शेष बचे , इसे काढ़ा करना कहते हैं
  • कास -- खांसी
  • कोष्ण -- कुनकुना गरम
  • गरिष्ठ -- भारी
  • ग्राही -- जो द्रव्य दीपन और पाचन दोनों काम करे और अपने गुणों से जलीयांश को सुखा दे, जैसे सोंठ
  • गुरु -- भारी
  • चतुर्जात -- नागकेसर, तेजपात, दालचीनी, इलायची।
  • त्रिदोष -- वात, पित्त, कफ।
  • त्रिगुण -- सत, रज, तम।
  • त्रिकूट -- सौंठ, पीपल, कालीमिर्च।
  • त्रिफला -- हरड़, बहेड़ा, आंवला।
  • तीक्ष्ण -- तीखा, तीता, पित्त कारक
  • तृषा -- प्यास, तृष्णा
  • तन्द्रा -- अधकच्ची नींद
  • दाह -- जलन
  • दीपक -- जो द्रव्य जठराग्नि तो बढ़ाये पर पाचन-शक्ति ना बढ़ाये, जैसे सौंफ
  • निदान -- कारण, रोग उत्पत्ति के कारणों का पता लगाना
  • नस्य -- नाक से सूंघने की नासका
  • पंचांग -- पांचों अंग, फल फूल, बीज, पत्ते और जड़
  • पंचकोल -- चव्य,छित्रकछल, पीपल, पीपलमूल और सौंठ
  • पंचमूल बृहत् -- बेल, गंभारी, अरणि, पाटला , श्योनक
  • पंचमूल लघु -- शलिपर्णी, प्रश्निपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी कटेली और गोखरू। (दोनों पंचमूल मिलकर दशमूल कहलाते हैं )
  • परीक्षित -- परीक्षित, आजमाया हुआ
  • पथ्य -- सेवन योग्य
  • परिपाक -- पूरा पाक जाना, पच जाना
  • प्रकोप -- वृद्धि, उग्रता, कुपित होना
  • पथ्यापथ्य -- पथ्य एवं अपथ्य
  • प्रज्ञापराध -- जानबूझ कर अपराध कार्य करना
  • पाण्डु -- पीलिया रोग, रक्त की कमी होना
  • पाचक -- पचाने वाला, पर दीपन न करने वाला द्रव्य, जैसे केसर
  • पिच्छिल -- रेशेदार और भारी
  • बल्य -- बल देने वाला
  • ब्राहण -- पोषण करने वाला
  • भावना देना -- किसी द्रव्य के रस में उसी द्रव्य के चूर्ण को गीला करके सुखाना। जितनी भावना देना होता है, उतनी ही बार चूर्ण को उसी द्रव्य के रस में गीला करके सुखाते हैं
  • मूर्छा -- बेहोशी
  • मदत्य -- अधिक मद्यपान करने से होने वाला रोग
  • मूत्र कृच्छ -- पेशाब करने में कष्ट होना, रुकावट होना
  • योग -- नुस्खा
  • योगवाही -- दूसरे पदार्थ के साथ मिलने पर उसके गुणों की वृद्धि करने वाला पदार्थ, जैसे शहद।
  • रसायन -- रोग और बुढ़ापे को दूर रख कर धातुओं की पुष्टि और रोगप्रतिरोधक शक्ति की वृद्धि करने वाला पदार्थ, जैसे हरड़, आंवला
  • रेचन -- अधपके मल को पतला करके दस्तों के द्वारा बाहर निकालने वाला पदार्थ, जैसे त्रिफला, निशोथ।
  • रुक्ष -- रूखा
  • लघु -- हल्का
  • लेखन -- शरीर की धातुओं को एवं मल को सुखाने वाला , शरीर को दुबला करने वाला, जैसे शहद (पानी के साथ)
  • वमन -- उल्टी
  • वामक -- उल्टी करने वाले पदार्थ, जैसे मैनफल
  • वातकारक -- वात (वायु) को कुपित करने वाले अर्थात बढ़ाने वाले पदार्थ।
  • वातज -- वात (वायु) दोष के कुपित होने पर इसके परिणामस्वरूप शरीर में जो रोग उत्पन्न होते हैं वातज अर्थात वात से उत्पन्न होना कहते हैं।
  • वातशामक -- वात (वायु) का शमन करने वाला , जो वात प्रकोप को शांत कर दे। इसी तरह पित्तकारक, पित्तज और पित्तशामक तथा कफकारक, कफज और कफशामक का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। इनका प्रकोप और शमन होता रहता है।
  • विरेचक -- जुलाब
  • विदाहि -- जलन करने वाला
  • विशद -- घाव भरने व सुखाने वाला
  • विलोमन -- ऊपर की तरफ गति करने वाला
  • वाजीकारक -- बलवीर्य और यौनशक्ति की भारी वृद्धि करने वाला, जैसे असगंध और कौंच के बीज।
  • वृष्य -- पोषण और बलवीर्य-वृद्धि करने वाला तथा घावों को भरने वाला
  • व्रण -- घाव, अलसर
  • व्याधि -- रोग, कष्ट
  • शमन -- शांत करना
  • शामक -- शांत करने वाला
  • शीतवीर्य -- शीतल प्रकृति का
  • शुक्र -- वीर्य
  • शुक्रल -- वीर्य उत्पन्न करने एवं बढ़ाने वाला पदार्थ, जैसे कौंच के बीज
  • श्वास रोग -- दमा
  • शूल -- दर्द
  • शोथ -- सूजन
  • शोष -- सूखना
  • षडरस -- पाचन में सहायक छह रस - मधुर , लवण, अम्ल, तिक्त, कटु और कषाय।
  • सर -- वायु और मल को प्रवृत्त करने वाला गुण
  • स्निग्ध -- चिकना पदार्थ, जैसे घी, तेल।
  • सप्तधातु -- शरीर की सात धातुएं - रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।
  • सन्निपात -- वात, पित्त, कफ - तीनो के कुपित हो जाने की अवस्था, प्रलाप
  • स्वरस -- किसी द्रव्य के रस को ही स्वरस (खुद का रस ) कहते हैं।
  • संक्रमण -- छूत लगना, इन्फेक्शन
  • साध्य -- इलाज के योग्य
  • हिक्का -- हिचकी

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